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Wednesday, November 17, 2010

ग़ज़ल : ठोकरें खा के, गिर के, संभलता रहा


तम से लड़ता रहा दीप जलता रहा
हर निशाचर की आँखों में खलता रहा


तन बँधा ही सही मन तो आज़ाद था
रात दिन तेरी जानिब ही चलता रहा


जो न होना था होता रहा हर घड़ी
हां जो होना था होने से टलता रहा


हम जहां थे वहीं के वहीं रह गए
वक़्त आगे ही आगे निकलता रहा


सांप बन के डसा है उसी ने हमें
आस्तीं में हमारी जो पलता रहा


मुझको जीना था, हर हाल में जी गया
ठोकरें खा के, गिर के, संभलता रहा


गीली मिट्टी के जैसी थी हस्ती मेरी
उसने जिस रूप ढाला मैं ढलता रहा


ओढ़ कर अपने चेहरे पे चेहरे कई
इक अंधेरा उजाले को छलता रहा



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रवि कांत 'अनमोल'
कविता कोश पर मेरी रचनाएं
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