मेरे ग़ज़ल संग्रह टहलते-टहलते में से एक ग़ज़ल
जो शिकवे थे लबों तक आ न पाए
हम अपने दिल को भी समझा न पाए
मिला था प्यार भी लेकिन म़कद्दर
उसे जब वक्त था अपना न पाए
करें क्या ज़िक्र अब उस दास्तां का
जिसे अंजाम तक पहुंचा न पाए
तुम्हारी रहनुमाई थी कि मुझको
वो उलझे रास्ते भटका न पाए
मुक़द्दर पर चला है ज़ोर किसका
कि मंज़िल सामने थी, जा न पाए
जो करना है अभी अनमोल कर लो
कि अगली सांस शायद आ न पाए
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