This is an old recording of one of my poem done in 2006 in Nagaland with the help of a cheap mobile phone and simple a Casio. Voice, composition and music is by my friend Mr. Sanjay Misra Music teacher.
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Wednesday, October 30, 2013
This is an old recording of one of my poem done in 2006 in Nagaland with the help of a cheap mobile phone and simple a Casio. Voice, composition and music is by my friend Mr. Sanjay Misra Music teacher.
Sunday, October 6, 2013
ग़ज़ल : यहाँ अब कातिलों को आज़माने कौन आता है
![]() |
शहीदे-आज़म सरदार भगत सिँह |
वतन की आबरू देखें बचाने कौन आता है
कफ़न बाँधे हुए सर पर मैं निकला हूँ कि देखूँ तो
बचाने कौन आता है मिटाने कौन आता है
जो पहरेदार थे वो सब के सब हैं लूट में शामिल
जो मालिक हैं उन्हें, देखो जगाने कौन आता है
वतन को बेच कर खुशियाँ खरीदी जा रही हैं अब
वतन के वास्ते अब ग़म उठाने कौन आता है
वतन की ख़ाक का कर्ज़ा चुकाने का है ये मौका
चलो देखें कि ये कर्ज़ा चुकाने कौन आता है
परायों से लुटे अपनों ने लूटा फिर भी ज़िंदा हैं
कि देखें कौन सा दिन अब दिखाने कौन आता है
लिये वो सरफ़रोशी की तमन्ना दिल में ऐ अनमोल
यहाँ अब कातिलों को आज़माने कौन आता है
Thursday, September 12, 2013
चलो सो जाएं
अब तो गहरा गई है रात चलो सो जाएं
ख़ाब में होगी मुलाकात चलो सो जाएं
रात के साथ चलो ख़ाब-नगर चलते हैं
साथ तारों की है बारात चलो सो जाएं
रात-दिन एक ही होते हैं ज़ुनूं में लेकिन
अब तो ऐसे नहीं हालात चलो सो जाएं
रात की बात कहेगी जो आँख की लाली
फिर से उट्ठेंगे सवालात चलो सो जाएं
नींद भी आज की दुनिया में बड़ी नेमत है
ख़ाब की जब मिले सौगात चलो सो जाएं
फिर से निकलेगी वही बात अपनी बातों में
फिर बहक जांएंगे जज़्बात चलो सो जाएं
--
रवि कांत 'अनमोल'
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ख़ाब में होगी मुलाकात चलो सो जाएं
रात के साथ चलो ख़ाब-नगर चलते हैं
साथ तारों की है बारात चलो सो जाएं
रात-दिन एक ही होते हैं ज़ुनूं में लेकिन
अब तो ऐसे नहीं हालात चलो सो जाएं
रात की बात कहेगी जो आँख की लाली
फिर से उट्ठेंगे सवालात चलो सो जाएं
नींद भी आज की दुनिया में बड़ी नेमत है
ख़ाब की जब मिले सौगात चलो सो जाएं
फिर से निकलेगी वही बात अपनी बातों में
फिर बहक जांएंगे जज़्बात चलो सो जाएं
--
रवि कांत 'अनमोल'
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Wednesday, September 11, 2013
ग़ज़ल : हमसे गलती हुई सी लगती है
शाम ढलती हुई सी लगती है
शमअ जलती हुई सी लगती है
रात सपनो की राह पर यारो
अब तो चलती हुई सी लगती है
उनसे तय थी जो मुलाकात अपनी
अब वो टलती हुई सी लगती है
हर तमन्ना न जाने क्यों अब तो
दिल को छलती हुई सी लगती है
हमने दिल खोल कर दिखाया जो
हमसे गलती हुई सी लगती है
जाने क्यों ज़िंदगी हमें अपनी
हाथ मलती हुई सी लगती है
शाम से इक उम्मीद थी दिल में
अब वो फलती हुई सी लगती है
--
रवि कांत 'अनमोल'
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शमअ जलती हुई सी लगती है
रात सपनो की राह पर यारो
अब तो चलती हुई सी लगती है
उनसे तय थी जो मुलाकात अपनी
अब वो टलती हुई सी लगती है
हर तमन्ना न जाने क्यों अब तो
दिल को छलती हुई सी लगती है
हमने दिल खोल कर दिखाया जो
हमसे गलती हुई सी लगती है
जाने क्यों ज़िंदगी हमें अपनी
हाथ मलती हुई सी लगती है
शाम से इक उम्मीद थी दिल में
अब वो फलती हुई सी लगती है
--
रवि कांत 'अनमोल'
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Saturday, August 31, 2013
अध्यापक दिवस के लिए गीत
यह गीत मेरे सभी अध्यापकों को समर्पित है जिनके कारण आज मैं इसे लिख पाया
हूँ और इस योग्य बन पाया हूँ कि इसे आप तक पहुँचा सकूँ।
पढ़ना सिखाया, बढ़ना सिखाया, शुक्रिया आपका।
ये जीवन के रस्ते कब आसां थे
हम जाहिल थे, भोले थे, नादां थे
इंसां बनाया, रस्ता दिखाया, शुक्रिया आपका।
हम साज़ों में बंद पड़ी सरगम थे
हम टुकड़े थे धुंधले से ख़ाबों के
हमको सजाया, यूँ गुनगुनाया, शुक्रिया आपका ।
कल हम अपनी मंज़िल जब पाएंगे
दिन ये सारे याद हमें आएंगे
दिल से लगाया, जीना सिखाया, शुक्रिया आपका ।
--
रवि कांत 'अनमोल'
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पढ़ना सिखाया, बढ़ना सिखाया, शुक्रिया आपका।
ये जीवन के रस्ते कब आसां थे
हम जाहिल थे, भोले थे, नादां थे
इंसां बनाया, रस्ता दिखाया, शुक्रिया आपका।
हम साज़ों में बंद पड़ी सरगम थे
हम टुकड़े थे धुंधले से ख़ाबों के
हमको सजाया, यूँ गुनगुनाया, शुक्रिया आपका ।
कल हम अपनी मंज़िल जब पाएंगे
दिन ये सारे याद हमें आएंगे
दिल से लगाया, जीना सिखाया, शुक्रिया आपका ।
--
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Saturday, March 23, 2013
मेरे कुछ शे'र जो मुझे अक्सर याद आते हैं
ख़िरदमंदी मिरी मुझको
वफ़ा करने नहीं
देती
ये पागल दिल
कि मुझको बेवफ़ा
होने नहीं देता
मुस्कुराने
पर बहुत पाबंदियां
तो हैं मगर
यूँ ही थोड़ा
मुस्कुराने का इरादा
मन में है
ख़ुदा नहीं हूं
मगर मैं खुदा
से कम भी नहीं
मैं गिर भी
सकता हूं गिर
कर संभल भी
सकता हूं
है मुकद्दर में भटकन,
भटकते हैं हम
होगा तक़दीर में तो
ठहर जाएँगे
बात कुछ आपकी
हो मेरी हो
और हम क्यूं
किसी की बात
करें
अट गई जब
ज़मीन महलों से
दाल चावल कहाँ
से लाओगे
ये मेरी सोच
का प्यासा परिंदा
तेरी बारिश
की बूंदें पी
रहा है
मैं जो चलता
हूं तो चलता
हूं तुम्हारी जानिब
दो क़दम तुम
मिरी जानिब कभी
आओ तो सही
उसे मस्जिद बनानी है इसे मंदिर बनाना है
मुझे बस एक चिंता, कैसे अपना घर चलाना है
हमारी इब्तिदा क्या देखते हो इंतिहा पूछो
मंज़िल तक पहुँचाना है जो, मेरे घायल कदमों को
कुछ हिम्मत भी दो चलने की, कुछ रस्ता आसान करो
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
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