भेद किसी का खोल रही है
मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है
जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है
कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है
मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है
बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है
देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है
तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है
कोई मीठी बात अभी तक
ReplyDeleteकानों में रस घोल रही है
-बस, यही सहारा है...उम्दा!
आप बहुत अच्छा लिखते हैं...सुंदर गज़ल.
ReplyDeleteहौसला अफ़ज़ाई के लिए शुक़्रिया
ReplyDeleteअनमोल